Dear Guys from Pakistan,
उम्मीद है, कि आप कुशल होंगे। वैसे आपके यहां की हमेशा की तरह आने वाली खबरें देखकर ऐसा कहते हुए सोच में पड़ा हूं! मुझे पता है हम कभी नहीं मिले हैं। आप मुझे जानते भी नहीं होंगे, कोई बात नहीं। आज परिचय ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है। वैसे, मैं आपके ही पड़ोसी देश का एक युवा नागरिक हूं। लोग हमारे स्तर के लोगों को 'आम लोग' कहते हैं। आप सोच रहे होंगे कि मैं आपसे क्यों संवाद कर रहा हूं, क्यों ये चिट्ठी लिख रहा हूं। एक ऐसे समय में जब हमारे बीच पहले से मौजूद गलतफहमियां और भी ज्यादा बढ़ाए जाने की कोशिशें हो रही हों।
अच्छा होता कि आज मैं जो कुछ भी लिख रहा हूं, उसे बेहद 'गर्व' से लिख पाता। पर आज ऐसी सारी गौरवशाली बातें और उनके एहसासों को एक अजीब सा झटका लगा है। ये 'गौरव' की अवधारणा है क्या आखिर? जब भी हमारे दोनों देशों के बीच या दोनों देशों के लोगों के बीच संवाद होता है, तो हम कब गौरव महसूस करते हैं? कब हम सीना तानकर, या ताल ठोंककर बातें करते हैं? या आंखों में आंखे डाल कब बातें करते हैं? ये सब मुहावरों वाली बातें हैं, जो आज मुझे समझ नहीं आ रहीं। फिलहाल इन दिनों हमारे देश में#हिन्दी_मुहावरे का बहुत चलन चला हुआ है। इन मुहावरों के बीच में असल बात कहीं रह ही जाती है।
वैसे जब भी हमारे बीच 'बातचीत' की बात होती हैं, तो उसके दो मायनें हैं, एक तो आधिकारिक सरकारी स्तर की वार्ता। दूसरा नागरिकों के बीच की बातचीत। वैसे पहले मायने में बात होने के बारे में लगातार माध्यमों से हमें जानकारी मिलती रहती है। लेकिन माध्यमों के प्रसारण देखकर पता ही नहीं चलता कि असल बात कितनी होती है? जितनी भी बहसें हमें तमाम माध्यमों से दिखाई जाती हैं, उनमें हमारे दोनों तरफ के वरिष्ठ पक्षकार अपनी बात रखते हुए या तो सीना फुलाते रहते हैं, ताल ठोंकते रहते हैं या फिर आंखें घनघनाकर चिल्लाते हुए आते-जाते रहते हैं। हमारे दोनों ही देशों के मेरे हमउम्र युवाओं की वरिष्ठ पीढ़ियां इसी तरह से अभ्यस्त रही हैं। पर दूसरे मायने की यानि नागरिकों के बीच के संवाद की बात करें, तो पता नहीं आखिर बात होती भी है कि नहीं। बात करने वाली पहल को ही जब कुचले जाने की खबरें सामने आती रहती हैं, तो शक होता है।
हम सभी संवाद प्रसारणों को सुनने वाले, अतीत के दिए गए उदाहरणों, उनके जुमलों पर या तो भावुक होते रहते हैं, या उन्हीं के प्रभाव में आकर अपनी राय उसी तरह बनाते रहते हैं। जिसे किसी मकसद से किसी की तरफ से कहा और प्रसारित किया जा रहा है। हमें पहले से बनी प्रणालियों में ढ़ाला जा रहा है। थोड़ा बहुत समझता हूं, ये प्रणालियां भी काफी संघर्ष और बलिदान के बाद बनाई जा सकी हैं। हमारा इसमें कोई योगदान नहीं रहा है, क्योंकि हम नई पीढ़ी हैं। हमें ये विरासत में मिल रहा है। पर ये वरिष्ठ पीढ़ी हमें किस हालत में ये कैसी विरासत दे रही हैं? हमसे काफी उम्मीदें की जा रही हैं, पर इन साजिशों के साथ में इन उम्मीदों का बीड़ा हम कैसे उठाएंगे। क्या ये चुनौती नहीं है?
हम दोनों ही जिस भी सोच का समर्थन करते हों, उसे रखने का हमारा अधिकार है। पर ये सारी पकी पकाई प्रौढ़ सोच हैं। मुझे भी कोई भारी अनुभव नहीं है, जो मैं इसपर टिप्पणी करूं, लेकिन मुझे लगता है कि हमें सावधान हो जाना चाहिए, इस प्रौढ़ता से। आज मैं किसी सोच के दायरे में ये सब नहीं लिख रहा। दरअसल, सारी सोच ही आज तमतमा कर ठिठक गई और दूर बैठ गई। सोचने से 'समझ' आती है या समझ से 'सोच'? आज समझ नहीं आ रहा। हम दोनों मुल्कों के युवा ही इस अस्पष्टता के पीड़ित बनते जा रहे हैं। आपको भी जो संजीदा अनुभव होगा, उसे साझा करना चाहता हूं। आज हमारे यहां ये सब बात करने का माहौल नहीं है, इसलिए आप से कह रहा हूं, उम्मीद है आप इसे थोड़ी संजीदगी से ही लेंगे। साथ ही मेरी मनोदशा को समझने की कोशिश भी करेंगे।
एक दो उदाहरण देता हूं, बचपन से जिस तरह की शिक्षा मिली, उसमें कभी भी नफरत की भावना नहीं थी। जिन संस्थानों और संस्थाओं से संबंध रहा, उनसे देशभक्ति की प्रशंसा, त्याग, बलिदान, स्नेह, सद्भाव, सहयोग, सम्मान जैसी नैतिक शिक्षा ही मिली। इनका इतना प्रभाव रहा कि सारी हिंसा और आक्रामकता खत्म हो गई। अब मन में कहीं भी किसी से भी हिंसा, द्वेष की भावना आती ही नहीं। चाहूं तब भी नहीं आती। जब देश की बात आती थी, तो राष्ट्रीय पर्वों पर जो सिखाया गया उसमें मेरी कल्पना में भी 'भारत मां', 'मां भारती', 'मातृभूमि' ये सारी संकल्पनाएं मन में चित्रित की गईं। इनसे एक पवित्र तस्वीर मन में उभरती थी, जब भी इनका जिक्र कहीं भी आता था। जिस संस्था से पढ़ाई हुई वहां हर बार सुबह शाम यही चित्र देखा गाया- ‘वन्दे मातरम’। पूरा बचपन इसी में बीता है।
ऐसे ही हजारों मेरे साथी, बड़े और छोटे भाई-बहनों का भी इसी तरह से प्रशिक्षण हुआ। इस दौरान सेवा क्षेत्र से ही परिचय ज्यादा रहा। समाज का सामान्य वर्ग जिससे जुड़ा हुआ है। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए जहां आना हुआ, वहां सब पूंजीवाद की एक अलग दुनिया मिली। इसमें खुद को ढ़ालने की कोशिश के बीच अब उसी माध्यम का हिस्सा बन रहा हूं, जहां से ये सब प्रसारण होते हैं। जिनका ऊपर मैं जिक्र कर रहा हूं। अब मेरी जिम्मेदारी है इन सारे प्रसारणों पर नज़र रखना और खुद भी प्रसारण करना। रोजगार का माध्यम तो बनेगा ही ये, लेकिन इसके लिए अपने जीवन को मुझे खपाना है। इतना बड़ा निवेश करना है मुझे। धीमे धीमे कर रहा हूं, पर यहां के इस माध्यम की जो प्रणाली है, वह अस्पष्ट करती है। इसका हिस्सा बने थोड़ा ही समय बीता है, कि इसी बीच मेरी सारी सोच, समझ और प्रशिक्षण पर रोज नए ऐसे हमले हो रहे हैं। जो मेरी सारी धारणाओं की फसल के साथ आंधी सा व्यवहार कर रहे है।
कुछ उदाहरण देकर समझाने की कोशिश करता हूं। प्रसारणों में मैं देख रहा हूं और खुद भी प्रसारित कर रहा हूं, मेरे देश के लोग ही देश के खिलाफ बोल रहे हैं। यहां तक कि देश के नाम और पहचान को लेकर अभी भी संघर्ष चालू है। हमारे देश की शीर्ष अदालत ने भी हाल ही में एक याचिका को खारिज कर दिया। साथ ही कहा कि देश को ‘भारत’ या ‘इंडिया’ जो पसंद करते हैं बुलाइए, पर ‘जनहित’ के नाम पर भावनात्मक प्रश्न अदालत के सामने मत रखिए।
ज़ाहिर है, नाराजगी इतिहास के अनुभवों में भरी हुई है। बात यहां तक आ चुकी है कि अब ‘छुरी की नोक’ और ‘भारत माता की जय’ इन दोनों को एक ही साथ रखकर संवाद किया जा रहा है। इसपर बहस हो रही है। देश की एक छवि गढ़ने के लिए भावनात्मक प्रतीकों का चलन और इस्तेमाल किसी संगठन ने किया। काफी पहले किया। एक पूरे विशाल देश में एक मूर्त छवि पेश की गई। उससे लोग सहमत या असहमत हो सकते हैं। यहां तक कि अभी तक मेरे ही देश के बारे में मेरे मन में जो भी चित्र उभरते थे, वो ‘भारत माता’ जैसे शब्दों से परिभाषित थे। मैंने भी ये परिभाषाएं सीखीं हैं। बड़ा भावनात्मक विषय है, लेकिन इसे वरिष्ठों ने और पुरानी पीढ़ियों ने तब ही गढ़ना शुरू कर दिया था, जब हमारे और आपके देश एक हुआ करते थे। अनुमान से कह सकता हूं कि हम भी एक ही हुआ करते थे। ये सब सियासी बातें हैं, जिनपर बड़ा हो-हल्ला हो रहा है। मेरे ही देश में। नारेबाजी हो रही है। दो तरह की, जिसमें आपके देश को भी घसीटा जा रहा है। कुछ तो आपके देश को प्रायोजक बताते हैं।
पर आप सोच रहे होंगे, ये सब मैं आपसे ये सब क्यों कह रहा हूं। ये मेरे देश का मसला है। तो कह दूं, मैं आपसे इसीलिए ये कह रहा हूं कि ये सब बातें सियासी हैं, पर इनके चलते दोनों ही मुल्कों के बीच ख़ासकर हम युवाओं के बीच भी लगातार एक खाई खोदी जा रही है। जो आगे भी कभी भरी नहीं जा सकेगी। सियासत, जिसकी समझ मुझे भले ज्यादा ना हो, पर इतना समझता हूं कि ये भड़काऊ बातें गलत हैं। अगर इसमें आप भी अपनी इसमे नई पीढ़ी को शामिल किया जा रहा है। नए-पुराने संस्थानों को घसीटा जा रहा है। सारी छवियां अभी तक जो थीं, वो सब भ्रम लगने लगी हैं। सारी प्रतिष्ठा, सम्मान, आदर जैसी बातें जो तमाम शिक्षण संस्थानों, देश, झंडे, राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत जैसे प्रतीकों के लिए अभी तक सीखीं, उन सभी का अनादर होते हुए देख रहा हूं। कई पक्ष, पैरोकार शामिल हैं। आज तठस्थ और निष्पक्ष तरीके से बात मेरे देश में कोई कहे तो बहुत कुछ कहा जाने लगा है। हर बात किसी खेमे से जोड़ दी जाती है। ये तमाम टिप्पणियां हो रही हैं, मैं इनका नियमित श्रोता और पाठक बन रहा हूं। ऐसे माहौल में मैं अपने देश से एक निष्पक्ष बात को सार्वजनिक तौर पर आप तक पहुंचाना चाहता हूं।
आज हमारे देश में ये ऐसा माहौल बन रहा है कि हम एक दूसरे को निष्पक्ष तरीके से सुनना नहीं चाहते। पर हम दूसरे के विपक्ष को दुश्मनी की तरह लेते हैं। अब विपक्ष दुश्मन भी है। आपके देश के बारे में भी हमारे यहां यह धारणा रहती है। हम आपको तभी सुनते हैं, जब कुछ खराब और आपत्तिजनक बयान दिया जाता है। रचनात्मक और समस्याओं को सुलझाने वाले बयान लगता है जैसे आते ही नहीं। आते भी होंगे तो प्रसारित नहीं होते। हाल ये है कि हमारे देश में आपके देश को जिंदाबाद कह देने के साथ ‘भारत मां की जयकार’ करने पर भी आपत्तियां होने लगी हैं। हम युवा हैं, हमें भी इन्हीं भावनाओं से बांटा जा रहा है। ये अजीब है, इनसे इतनी संलिप्तता ठीक नहीं। इन बयानों से कुछ रचनात्मक कहां निकलता है। इनपर विवादों से कुछ भी कहां मिलता है। ये विचार प्रसारणों में आएंगे, ये जनता के लिए बड़े मुद्दे बनेंगे। इनको जानना जरूरी हो सकता है। पर हमारे बीच में इनकी वजह से बढ़ती दरार को खाई में बदलने में भी इनका इस्तेमाल हो रहा है। एक पूरा देश कैसे खराब हो सकता है? साधनों-संसाधनों की जरूरत सभी को है, पूरी व्यवस्था की खामियां हो सकती हैं। पर समाजों के बीच में किसी भी तरह से नफरत कैसे जायज़ हो सकती है?
आज हमारे आपके बीच फैलाई गई कटुता जिसे हम मानते थे कि आपको और आपके देश को ही खा रही है, वह अब लगता है, हमें भी खाएगी या खा सकती है। अगर ऐसा हुआ तो मुझे इसका प्रत्यक्ष दर्शक बनना होगा। आपसे अनुरोध है ऐसे में आप मेरा और मेरे देश का मज़ाक नहीं बनाएंगे।
आपका अनजान दोस्त
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