नामोनिशान


'नामोनिशान' ऐसे कि उन्हें देखते ही कोई चहक उठे
कोई चिल्ला उठे उसे मिटाने को
दम भरे कसकर, फिर चल पड़े 
ऐसा महसूस हो, तो घूरकर देख ले, एक बार आइने में
खुद को ही एक नज़र
मिलेगा ऐसा खरा 'लाल' रंग उतरा आंखों में
जो नफरत का होगा 'गुलाल'
तुम उसे पी गए हो, अपनी आंखों से
उतरेगा फिर वो गले से 
उगल दोगे जलजले को मुंह से
वो जीभ को जला देगा, दांत भिंच जाएंगे
कसकर मुट्ठियां ठसकने लगेंगी
तुम तैरता देख लोगे उसे हर ओर
इतना ज़हर अपने भीतर, फिर चारों ओर

अरे थमो ज़रा...

'नामोनिशान' मिटाने पर इतना ज़ोर
'बनाने' पर कितना है तुम्हारा?
बनी विरासत से इतना रोष
छोड़ जाने को कितना कर पाया?
लंगोट के रंग से नफरत
आंखों में नहीं देख पाया
एक मर्जी चली नही, तो इतना विद्रोह उतर आया
अरे, सामयिक हो सके नहीं, तो इतिहास पर क्रोध आया!
बढ़ा हाथ मददगार नहीं लगा तो उखाड़ डाला
हाथ किसका है ये नामोनिशान बनाने में
जानने का ये सवाल, पूरा जीवन इसी में निकाला
मिला नहीं कुछ सटीक सा, इतने में ख्याल आया
नहीं है पसंद ये 'नामोनिशान' तुम्हारा
मेरी 'नापसंद' ने इसे पराया बनाया...




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