रामानुज


1. बचपन का उतावलापन

जीवन के अर्थ आप कहां जाकर तलाश करते हैं? इसका एक ही अर्थ होता है या कई? निश्चित ही कई। तो आप तलाश तो करते हैं! आश्चर्य हो रहा है क्या?

कोई कितना उतावला हो जाता है, कोई पूरा जीवन उतावलेपन में निकाल देता है। बाकी तो सोच भी नहीं पाते। मैं तुलना कर रहा हूं। पर मुझे ये केवल तुलना तक सीमित नहीं रखना है। मैं प्रभावित हूं। इस वक्त बहुत ज्यादा। नाम कोई और नहीं यही है रामानुज।

दक्षिण भारत मुझे आश्चर्यचकित कर रहा है। मैं होना नहीं चाहता। कारण है कि आश्चर्य आपमें निहित ना होने वाली चीजों पर होता है। एक साधारण सी बात जो आपने कभी नहीं देखी, आपने अभावग्रस्त होने के चलते नहीं देखी, तो आम सी चीजें भी आश्चर्य देती हैं। मैं उनपर अपनी हैरानी निवेश नहीं करना चाहता। एक मरीचिका से समाज में तो बिल्कुल नहीं।

दक्षिण भारत क्या ज्यादा तेजस्वी रहा? क्या दक्षिण भारत में प्रकाश ज्यादा था। वहां की चिंतनशैली ज्यादा रहस्यमयी ना होकर ज्यादा समझदारी वाली रही! ये सब मेरे सामने अनुभवों के तौर पर आ रही हैं। पर मैं साबित कुछ नहीं कर सकता। मैं बहस नहीं कर पा रहा। मैं कैसे करूं। किससे करूं, क्या जरूरी होगा, इसे तर्कों से साबित करना, एक समय में जब मैं तर्कों की कसौटी पर खरा उतरना सीख रहा हूं।

रामानुज क्या है? मैं बहुत प्रभावित हूं। एक एक संकेत के तौर पर मेरे सामने आए हैं। ये एक छवि मुझे दिखाई गई है। मैं इसे तर्कों से दूर कर अभी कहीं स्पष्टता की तलाश में हूं। तो तर्कों से अनुरोध है कि वो मेरे मस्तिष्क से अभी थोड़ी दूर रहें।

रामानुज का परिचय इतना ही है कि वह एक आत्मज्ञान प्राप्त सिद्ध व्यक्ति थे। जिनकी फिलॉसॉफी दक्षिण भारत में प्रचलित है। उत्तर भारत जितना रूढ़िवादी और जितना सगुण स्वरूप में यकीन करता है, रामानुज उसके बिल्कुल विद्रोही प्रतीत होतें हैं। रामानुज जो हैं वो विद्रोही हैं। विद्रोही स्वर वाले। यहां जो विद्रोह है वह शाब्दिक नहीं बल्कि व्याख्या के प्रसंग में इस्तेमाल होने वाला शब्द है। जो लेखों की नए सिरे से ब्याख्या करे। तर्क से समझते हुए।

फिर तर्क आया। ये तर्क मैं रामानुज के तर्क में ही रखना चाहता हूं। शुद्ध रूप से उन्हीं के तर्क में शामिल। मैं अपनी राय नहीं मिश्रित करना चाहता। मेरा तर्क दूर है। मेरी अनुभूति रामानुज के पथ पर ठहरी हुई है अभी। उसी पर रहना है। रामानुज कितनी सहजता से जीवन जीते हैं। एक तलाश, हर किसी के प्रति आदर, इतना आदर कि कोई देखता ही रह जाए। इतनी घनिष्टता किसी से भी हो जाए कि फिर वो कभी भुला ही ना पाए। किसी को अपना बनाए, तो वो कभी दूर ही ना हो पाए। इतना सार्थक जीवन। कितना सुंदर है रामानुज।

रामानुज का तो अभी बचपन ही था, वो जाति बिरादरी में ऊंचा है। किसी बड़े पंडित घराने की संतान है। घर समृद्ध है। अनुशासित है, वो अध्ययन में रत है। रामानुज पढ़ता है। कितना मन से पढ़ता है, कोई लगन देखकर मोहित हो जाए, तो कोई जलन में मर जाए। कोई उससे प्रभावित हो जाए तो कोई उससे प्रेरणा लेकर जीवन भर की राह पकड़ ले जाए। इतना तल्लीन है रामानुज।

रामानुज जब घर में रहता है, तो भी चिंतनशील रहता है। उसे याद रहता है उसका पथ। जिसकी वह तलाश में है। वह सवालों से घिरा है। वह कितना समर्पित है। गली से कोई निचली बिरादरी का गुजर जाए, उसके लिए उतनी ही श्रृद्धा जितनी कि कुलीन पंडित की। मन में कोई खोट नहीं। कोई शरारत नहीं। प्रणाम भी करता है, तो पूरा नतमस्तक होकर। इतनी शिक्षा, ये कोई दिखावा नहीं। बनाबट नहीं। (मुझे क्यों इसपर आश्चर्य हुआ, अरे होगा ही तुम बनावटी हो ना इसलिए। मान लो अपनी सच्चाई।)

रामानुज सेवा करने में इतना माहिर है कि बस कोई मिल जाए। अपने हिस्से की रोटी देने में सबसे आगे रहने वाला। उसे भूख नहीं लगती क्या? वो भी तो इंसान है, पर वो बांटने में यकीन करता है। जरूरतमंद की जरूरत समझने वाला। अगुवाई करने वाला। नेतृत्व भी है, उसमें।

रामानुज की मां-पिता कितने सजग हैं, अपने बेटे की प्रगति के लिए। प्रगति आर्थिक नहीं है यहां, वो तो उन्नति के लिए उसे और तैयार करते हैं। पूरा समय देते हैं, वो भी अहमियत पूरी समझता है। वो जाता है, हर उस जगह हर उस चर्चा को सुनने जो उसे आगे बढ़ाती है। वो इतना सजग मस्तिष्क वाला लड़का है कि हर कोई उसे प्रेम करने लगे। हर कोई आशीर्वाद दे। हर कोई उसकी आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बने।

शिक्षा इतनी स्थूल नहीं हो सकती। विशेषज्ञ हमेशा कहते हैं, ये सत्यता है। ये रचनात्मकता है। ये साहस है। रामानुज में तीनों है, वह शिक्षित है। वह दीक्षित हो रहा है। उसके मन में सवाल उठते हैं। ब्रह्म की समझ पाने के लिए गुरु के पास जाता है। वहां रहता है, सेवा करता है। सवाल करता है, सवालों के जवाब देता है। संतुष्ट नहीं होता, तो तर्क भी देता है। तार्किक इतना कि मुरीद कर देता है। सवाल पूछने वाले को भी। इतनी गहन समझ से गुरु भी आश्चर्य में पड़ जाता है। तुरंत स्वीकार ना भी करे, तो भी वह बाद में सोचने के बाद मानने को मजबूर हो जाता है। फिर मान ही लेता है। मसलन एक सवाल। ब्रह्म जिज्ञासा का सवाल है। ब्रह्मसत्य है! क्या ये तर्कसंगत है? गुरु के लिए ये सत्य है। वह अध्ययन के उपरांत ब्याख्या में यह बताता है। पर रामानुज कहता है, सत्य ब्रह्म की विशेषता है, ब्रह्म उससे बढ़कर है। ब्रह्म से सत्य है। अगर ब्रह्म सत्य है तो फिर असत्य कौन है? ब्रह्म तो सत्य-असत्य दोनों का मालिक है। तो फिर असत्य कौन है? ऐसे असीमित सवालों से गुरु को भी विचलित कर देता है- रामानुज।

ऐसी जिज्ञासा रखने वाला रामानुज गुरुओं का गुरु बनता जाता है। विवाह करता है, फिर पिता को खोता है। फिर भी अविचलित रहता है। पत्नी से कैसा संबंध। पत्नी सांसारिक रह जाती है, रामानुज आगे बढ़ते जाते हैं। दूरी संसार से हर दिन बढ़ती जाती है। रामानुज की विचलित प्रकृति और उन्हें स्थायी करती जाती है। रामानुज गुरु से गुरुतर होते जाते हैं। गूढ़ रहस्यों को उद्घाटित करते जाते हैं।


2. जीवन साथी या जीवन सारथी

रामानुज एक ऐसी शख्सियत हैं, जो व्यवस्थाओं को चुनौती दे दें। इतनी शालीनता से कि आप देखते रह जाएं। किसी भी भरोसे की कीमत इतनी नहीं, जितनी कि आप रामानुज के व्यक्तित्व पर कर पाएं। 

मां के गुजरने के बाद रामानुज रामानुज और उनकी पत्नी ही बचते हैं घर में। जीवन का ये मोड़ बड़ा मुश्किल है रामानुज के लिए। जीवन में सारथी की जरूरत होती है और साथी की भी। जिसे जीवन साथी कहा जा सकता है। जीवन साथी थोड़ा अस्थायी है। जीवन सारथी उससे बड़ी चीज है। रामानुज की जीवनसाथी कौन हैं? उनकी पत्नी?, उनकी पत्नी तो हैं, पर वो सच्ची जीवनसाथी नहीं बन पातीं। कभी परिस्थितियां ऐसी भी हो सकती है, कि जीवनसाथी ही जीवनसारथी बन सकता है। पर रामानुज के जीवन में साथी स्थिर नहीं रहता। ये स्थायित्व का विषय नहीं रह पाता।

क्या रामानुज स्थायित्व की तलाश में है? लगता तो ऐसा है, पर वो बड़े गतिशील लगते हैं। रामानुज बेहद गतिवान हैं। इतने गतिवान की उनकी चाल के मुकाबले में जीवनसाथी पीछे छूट जाते हैं। एक बार नहीं बार-बार ऐसा होता है। पर रामानुज चलते रहते हैं। कितना उत्साहित रहते हैं। जरा सा डिगने पर विचलित! आह!

साफ है यहां सारथी कोई और है। एक घटना घटती है, रामानुज जिनसे ज्ञान के आकांक्षी हैं, उन्हें भोजन पर बुलाते हैं। वो गुरु हैं रामानुज के एक अन्य। रामानुज जातिव्यवस्था में उनसे ऊंचे ब्राह्मण हैं। लेकिन जब भोजन के लिए रामानुज के घर आते हैं, तब रामानुज घर पर नहीं होते। उनकी अनुपस्थिति में वह घर आते हैं। रामानुज की पत्नी उनको भोजन तो कराती है। वह उतना सत्कार नहीं करती। एक साधारण स्त्री सा व्यवहार। शायद रूखापन नहीं भी था। पर रामानुज के मुकाबले सत्कार का गुण उतना नहीं रहा। वह भोजन उपरांत जल्दी चले जाते हैं। रामानुज वापस आते हैं, तो पत्नी बताती है, वो आए थे, खाकर गए। बचा खाना किसी जानवर को डाल दिया। रामानुज उस प्रसाद से वंचित रह गए। अवाक भी, पत्नी की इस विधि पर।

फिर दूसरी घटना घटती है। उन्हीं गुरु की पत्नी से रामानुज की पत्नी का दुर्व्यवहार। कहीं कुलीनता का अहंकार ना छिपा पाने की गलती कर जाती हैं। एक ही कुंआ है, वहां वह और गुरु की पत्नी आती हैं। जो उतनी कुलीन नहीं, जितनी व्यवस्था में रामानुज और उनकी पत्नी हैं। सारी रूढ़िवादिता यहां मुखर हो जाती है। पानी की बूंदें मिल सकती हैं। रूढ़िवादी सोच नए विचार से मिश्रित नहीं हो सकती। बस!

इतनी जटिलता उनके व्यवहार में। पानी फेंक देती है रामानुज की पत्नी, जो गलती से दोनों के घड़ों के छलकने से मिल गया था। इसपर गुरुमां एक टिप्पणी करती हैं कि आप उतनी उदार नहीं जितने कि रामानुज! बस फिर क्या? बौखलाहट सारी छिपी निकल पड़ती है। कुल का अहंकार, पुराने गड़े अंधकार में पड़े अज्ञान का उद्गार निकल ही पड़ता है। पत्नी सराबोर कर देती है, गुरुमां को। अपने पति की गुरुमां को शर्मसार। ना चाहकर या चाहकर? मन में पति से बढ़ती दूरी की कुंठा निकल पड़ती है। उमड़ पड़ती है, उस कुंएं पर। पर सच में तो संसार रामानुज से दूर होता जा रहा है। इसमें कोई दोषी तो नहीं। पर उसी संसार के लिए रामानुज की पत्नी दोषी बन जाती हैं। उस वक्त शायद रामानुज के लिए भी।

निराश गुरुमां अपने पति के साथ उस घर से चली जाती है। उस पड़ोस को छोड़ देती है। यहां अपमान भी बड़ा भारी है। जीवन साथियों में इतना अंतर। किसी को भी विचलित कर दे। कोई भी रामानुज की उदारता से यहां प्रभावित हो सकता है। वह एक और ऊंचाई पर चढ़ जाते हैं। पत्नी नीचे रह जाती है। रामानुज की लोकप्रियता यूं और बढ़ती जाती है।

अचानक गुरु-गुरुमां के लापता होने पर रामानुज हैरान-परेशान पत्नी से आकर कारण पूछते हैं। पत्नी का अहंकार यहां कम होकर गलती पर शर्मिंदा हो जाता है। रोकर आंसुओं की धारा के बीच सारा कथानक सामने बयां हो जाता है। रामानुज पत्नी की ढ़ीठता पर चुपचाप आलिन्द के किनारे धोक लगाकर चिंतन में डूब जाते हैं। शर्मिन्दा है पत्नी, वह माफी मांगती है, रामानुज अपने पथ की इस बाधा को समझने लगते हैं। एक जीवनसाथी को वह बाधा पाते हैं। यहां क्या कदम उठाया जाए, इस सोच में पड़े रामानुज कुछ ठान रहे हैं।

ये कैसा स्वार्थ है? ये कैसा सवाल उठता है? ये कैसी चाहत है? क्या चाहते हैं रामानुज? पत्नी का मन इन्हीं पहेलियों में डूबा है। पति की उच्चतरता का भान नहीं है। वह साधारण है, रामानुज ऊंचे पायदान पर चढ़ते हैं। नारीवादी कोई यहां आलोचना कर बैठे रामानुज की? तो कोई निरा आध्यात्मिक धन्यवाद दे दे पत्नी को। कोई पत्नी को ठेस पहुंचा बैठे।

ये ठेस हर कारगुजारी के पीछे बड़ी उपलब्धि दिलाने वाली गतिविधि होती है। दुनिया में ठेस ना मिले तो व्यक्ति ठहर जाता है। ठेस एक ठोकर की तरह है जो उसे ऊपर बढ़ाती है। आगे पहुंचाती है। ठेस में कोई गिर पड़े, तो वो कमजोर रह जाता है, ठेस से कोई संभल जाए, तो वो मजबूत हो जाता है। जीवन लंबा सफर होता है, तो आगे चलते रहना, आगे पहुंचते रहना तो आवश्यक है। ये बस रुकावट नहीं बननी चाहिए। फिर वह चाहें कोई भी हो। जीवनसाथी भी क्यों ना। आत्मउन्नति के मार्ग में कोई रुकावट नहीं होनी चाहिए। फिर चाहें ठेस से उसे दूर करना पड़े। रामानुज के सामने अब यही मौका था। जब वो अपनी ठेस और अपने गुरु को मिले अनुभव से संभल पाता। या वो अस्थिर होकर कमजोर होकर यहीं रुक जाता। रुकावट विकल्प थी, ही नहीं उन्हें  उत्सर्ग करने का फैसला करना पड़ा। बस एक निश्चय और फिर बस कोई रुकावट नहीं। रामानुज कितने हल्के हो गए। मन से सारा बोझ उतरने लगा। एक डिपेंडेंसी जो थी, वो चकनाचूर हो गई। पहाड़ सारा नीचे झुक गया। सारें सांप-सपोलों का जंजाल भ्रम लगने लगा। जो था ही एक भ्रम की तरह, बस परदा हट गया। सार्थक हुआ- दिया अपना अना को जो हमने हटा, वो जो पर्दा बीच में था ना रहा।

रामानुज मुक्त हो गए। एक निश्चय ने उन्हें एकमात्र सांसारिक बंधन से मुक्त कर दिया। ये था एकमात्र जीवन साथी से अलगाव और जीवन-सारथी के हाथों में समर्पण।




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