अगला पड़ाव - गृहस्थ

आज का दिन गुजर गया है अब रात है, पर मन पर कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। दरअसल, सुबह बहुत बड़ा फैसला हो जाएगा। होना ही है सुनिश्चित। मुझे कोई संदेह नहीं, लेकिन कई लोगों की मौजूदगी इसमें कई तरह के फर्क लाने वाली है। मन मुताबिक नहीं होगा, सब। मन मुताबिक होता है क्या, मुझे नहीं पता, नहीं समझ आता अब। हम समाज में आए हैं, तो समाज के सभी लोगों और उनकी आदतो को सहन करना होगा। कोई मिलन होना है या नहीं ये इनके मौजूद होने में निर्भर करेगा। आज किसी से शिकायत मत करो। जो मिलना है, वो मिलेगा। जो नहीं मिलना है, वो नहीं मिलेगा। बहुत ज्यादा फिक्र मत करो। तुम्हारे कर्मों को देख लिया गया है। जिसे नतीजे देना है, वो देगा। एक दिन का मौन तुम्हें बीते कर्म के फल से हटा नहीं सकता। अरे, देखो चारों ओर, मुश्किल नहीं है। हर दिन बीतेगा। एक दिन सब हो जाएगा। कितना इंतजार रहा होगा, ये प्रकृति इतनी निर्दयी नहीं हो सकती। तुम बारीकियों को कल से पहले देख ही नहीं सकते। समय से पहले बिल्कुल नहीं। हमें वक्त मिलेगा, जितना भी उतने में ही फैसले लेना होगा। ये दुनिया किसी कचहरी की तरह हो जाएगी, कल। एक 2 घंटे की अधिकतम सुनवाई में जीवन भर का फैसला। आज जब सब साझा करना है, साझा होना है, तो पीछे मत हटो। आज ये होगा, कल तक के घटनाक्रम में तुम्हें बिल्कुल स्थगित सा नहीं रहना है। जीवन स्थगन हो नहीं सकता। स्थगित जो होना था, वो हो चुका है। आगे सब सुलभ होगा। ये एक परीक्षा अन्यत्र होगी। कहीं भी, कल सबको पता चल जाएगा। कल एक बड़ा सुनियोजन होना है। परिवार को एक और पड़ाव रखना है। बोझिल लग रहा है, क्या? अरे  उत्साहित रहो। ये सादगी से समझौता नहीं करो। जो नहीं है, वो नहीं है, उसे ऐसे ही स्वीकार करो। 

5 Oct 2016

No comments:

Post a Comment