वैसे गृहस्थी स्थिर होनी चाहिए या अस्थिर?
अभी की अस्थिरता तो प्रेरित है
सामने उदाहरण जो बेहद कम हैं स्थायित्व के
एक नए पड़ाव पर कदम हैं, दो के चार होने हैं
उनसे कदमताल मिलाना है,
अपना अस्तित्व दोहराना है
हम आनन्द लहर खोज लाएं
उसे गृहस्थी में ला पाएं, ये कथित मुश्किल है
पर ज़रा विचार करने पर ये लगता धूमिल है
गृहस्थी एक और कर्म है, जिसे अपने अंदाज में करना है
कोई योजना क्या बनाएं, जब सब कोरी कल्पना है
एक कल्पना जो हर रोज नयी हो सकती है
शत प्रतिशत आज़ादी और बेबाकी भी देती है
इसमें लड़खड़ाना क्या, इसमें सलाहों पर पछताना क्या?
जब हर कोई भ्रमित हो, उससे ज्ञान का भान क्या?
जो जग खोजा तो निकला असत्य, सत्य का ध्यान कहां?
जब समाधान मिल चुका, तो हिलोरों का भी अभिमान क्या?
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