कोई है तैनात सिर्फ भंग करने को भंगिमा
धुनी रमी है कब से और ये भष्मासुर से!
तरंगमय कहीं कुछ नहीं सब सतही है
एक फूंक के फ़र्क सा, पलक झपकने सा
है अस्थिर सब, ये बने हैं बड़े फिरते...
अगणित अभिलाषा का सेवन कर लो
निरा पान नहीं गंग धूप में श्रवण भी
विरासत है दूरी पर, चलकर है जाना
पक्का है शहर पर कच्ची सड़क का आना
क्षण भर के रोड़े पर ठिठक क्या जाना...
धूल उड़ेगी हम उस दौर में हैं ही नहीं
ये उधारी पर जीने वाले राह पर हैं ही नहीं
एक प्रतियोगी एहसास में रोड़े देने वाले
ये उत्सव नहीं उत्साह का उनके लिए
देगा वो नहीं, जिसके पास कमी है
हम तो समंदर भर पी लेंगे और
मांगोगे तो पूरा समंदर दे देंगे...
हमें तुम्हारा खालीपन भाया ही नहीं
तुम रखो अपना छिछोरापन
हम लाए थे बचपन, रहेंगे तो बस इसी में
तुम अपनी उम्र पर ही इतराते रहना..
No comments:
Post a Comment