अंतर्घट

अधर चांदनी लटकी है, आकाश में छिटकी है
जैसे बिजली आंगन में अंतर्घट तक कड़की है
उदर चेतना सी भारी, ये पहल दिमागी भड़की है
विद्रोही सीमाएं तन की, जटिल हुई हैं धधकी हैं

गुंजन मन तो चीत्कार सा, अब तो ना ये करता है
जीवन का सैलाब अब तो कौशल में ही सिमटा है
विस्तारित हो चली जवानी दिन दिन ये चमकी है
अहं दिलासा देगा क्या, सच की दीवानी भभकी है

उमड़े मेघा जब यौवन पर, कितने बेगाने भ्रमर हुए
भ्रम से कितने मोहजाल में, तिनके तृण सब विफल हुए
बेगानी बातों का क्या, लालायित से सभी हुए
ये कौन जमाना बीता है, विहग प्रताड़ित सफल हुए

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