सहनशीलता का
परिचय कितना हो, किस हद तक हो. ये सब हमें ही एक ना एक दिन तय करना होता है. विषय
केवल इतना है कि आप गैरजरूरी होने की हद तक बर्दाश्त कर पाते हैं या नहीं. व्यक्ति
विशेष कब आपकी क्षमता का परीक्षक बनकर सामने आ जाएगा आप यकीन नहीं कर सकते. हद
होने पर आपको अधीर हो जाना चाहिए. अपनी तकलीफ बयां कर देनी चाहिए. इसमें कोई बुराई
नहीं. भले आपका असर असहनीय हो जाए फिर, सामने वाले को उसे फिर झेलना होगा. क्योंकि
शुरुआत उन्होंने ही की है.
अहिंसा को कहा
तो गया है कि ये महिलाजनित गुणधर्म है. बिना मनसा वाचा कर्मणा किसी को चोट पहुंचाए
आप क्लेश की हद तक खुद को जलाते हुए दूसरों के सामने खुद को दर्शाते रहें. ताकि
दूसरे को अपराधबोध हो सके. अगर आपका ये आग्रह इतना प्रभावशाली हो कि सामने वाला
प्रभावित हो जाए. तो आपकी यही सक्षमता आपको अहिंसक होने का विशेषण भर दे देती है.
आप कुछ भी कर लें लेकिन आप इन गुणधर्मी विशेषताओं से विमुख नहीं हो सकते. लेकिन
इसके बाद भी एक ना एक दिन आपके सामने ऐसे हालात आते हैं कि आपको इन विशेषताओं को
भूलकर प्रतिकूल व्यवहार करना पड़ता है. फिर चाहें आप अकेले ही क्यों ना हों. वहां
आप मजबूती से खड़े रहते हैं. सीमा पार होने पर आप अपनी विशेषताओं के खिलाफ जाने से
खुद को नहीं रोक सकते.
ऐसे मौकों पर
आप जरूर चले जाइए. पंक्ति से निकलकर दूर खड़े हो जाइए और कह दीजिए खुलकर,
आपत्तियों को जता दीजिए. बुरा महसूस होने का अधिकार आपको भी है. बुरा जब महसूस हो
रहा है या जब ऐसा कराया जा रहा है तो हक से कहो कि हां ठेस पहुंची है. इसपर
प्रतिक्रिया आएगी. ऐसी स्थिति जब बने तो स्पष्टता से कहो हां आप गलत हैं. इसमें
मुश्किल तत्कालिक होगी पर बाद में राहत महसूस होगी.
थोड़ी देर के
लिए आप हिल जाएंगे, अभिव्यक्तियां बहुत मजबूत होती हैं जब हृदय से होती हैं.
अलबत्ता
मुनासिब तो ये था नहीं,
हमने तो ना
चाहा फिर भी ये हो गया
तुमने कुछ
कहा, बार-बार कहा
...तो हमारी
ज़बां से भी निकल गया
जकड़न बहुत थी
हमारी कशिश में
पर तुम्हारी
अकड़न में वो सूख गई
चुभा तुम्हें
तो कुछ था नहीं
पर कांटों में
हमारी जीभ फंस गई
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