कंदरा में अंतरिक्षयात्री

हम कंदराओं में तो बैठे नहीं हैं जो आंखें मूंद कर सारी घटनाओं को नजरअंदाज कर दें. कंदराओं में बैठना अलगाव से प्रेरित होकर लंबे समय के लिए विमुख हो जाना है. विमुख होना अच्छा है पर एक हद तक ही. समय-समय पर वापस नगर के रास्ते भी आना चाहिए. घटनाओं को नजरअंदाज ना करें उनसे दूरी भले बना लें. कट जाना कोई विशेष योजना नहीं हो सकती. पर कभी-कभी एक गहरी जरूरत पर जरूर इस योजना को साकार करना पड़ता है. किसी खास घटना से कट जाने में ही भलाई है. नहीं तो ना नगर में जगह मिलती है ना कंदरा में. क्योंकि वह आपका मन, धन और आत्मा को दूषित कर देती हैं. ऐसी घटनाओं से तो कटना ही अच्छा.

विशेषताएं जरूर अहमियत रखती हैं. विवेक के बीच की परतों में तमाम विशेषताएं हैं. हमारे मन के बीच कितनी कंदराएं हैं. वो सभी विभिन्न विशेषताओं से परिपूर्ण हैं. हम तलाश में निकलते हैं. कहीं किसी विशेषता से तत्काल प्रभावित होते हैं और वहीं ठहर जाते हैं. फिर जरा सा विमुख होने की संभावना बनते ही एक अलग कंदरा की ओर आकर्षित हो जाते हैं. ये एक जटिल और लंबा रास्ता है. जो मन तय करता है और ये सब मन के भीतर ही होता है. मन का विस्तार ही इतना विशिष्ट है कि ये सुदूर तक हमें अटकने नहीं देता. ये कहीं भी नहीं फंसाता. ये फिर खींच लेता है. चाहें आप कितनी भी दूर हों. 

मन छवियां गढ़ता है. ये खुद को बनाता है फिर बिगाड़ता भी है. आप कितनी भी कोशिश कर लें, ये आपको बिना स्वरूप विशेष का भान कराए नहीं रह सकता. ये आपको राय बनाने में मजबूर करता है, फिर ये उसे ही तोड़ने पर लग जाता है. ये विस्मय देकर आपको चकित कर देगा, तो कभी आपको दो विकल्पों में उलझा देगा. यहां आप कुछ भी तय ना कर पाने की स्थिति में होते हैं. इस द्वैत की उलझन में आपको मजबूरी में द्वंद्व में पड़े रहना होता है. आप कभी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते. दोनों की विशेषताएं रोककर रखती हैं. 

विश्वसनीयता भी एक बड़ी चीज है. हमारा नगरीकरण इस तरह का है कि हम विश्वास नहीं कर पा रहे हैं. हर व्यक्ति संदिग्ध है. आप किसी भी किस्म की छवि बना लें किसी के सामने. आपको परेशानी ही होगी अपनी विश्वसनीयता साबित करने में. एक जटिल प्रक्रिया हो गई है अब तो खुद को भरोसेमंद साबित करने में. आपके रक्त से ज्यादा आपकी संपत्ति की कद्र है. आपके स्वभाव से ज्यादा आपकी हरकतों की कद्र है. आपकी अभिव्यक्ति से ज्यादा आपकी अश्लीलताओं की कद्र है. एक विचित्र माहौल है जो हमें इतना नकली बना दे रहा है. हमारी असलियत और असली रूप की जरूरत ही नहीं मालूम होती. आप अपने असलीपन को व्यक्त ही नहीं कर पा रहे. आपको आसान होने में दिक्कत महसूस होगी.

महानगर तो कंदराओं से भी गए गुजरे हैं. यहां शोर में आपको अपनी आवाज भी सुनाई नहीं देती. आपकी आवाज कहीं दब जाती है. आपको बोलने में परेशानी होने लगती है. चीखकर कुछ कहेंगे तो भी उसे सुनने वाला नहीं होगा. मूल्यवान बात कहेंगे तो उपहास होगा. आप असली होंगे तो आप हल्के महसूस कराए जाएंगे. जितना नकली होंगे, उतना आप अट्टहास के हिस्से बन पाएंगे. हास्य-विनोद सब स्तरहीन हो जाएंगे. आप रूठते जाएंगे समय से, असमय से. आप बेतुके से महसूस होने लगेंगे. इस बेतुकेपन में जितनी रिक्ति पैदा होगी वह आकाश तक यहां तक कि अंतरिक्ष तक सीमा विस्तार कर लेगी. जिसे भरने में पूरा संसार कम पड़ जाएगा.

ये सारा अंतरिक्ष आपकी एक कंदरा के भीतर किसी कोने में पड़ा होगा. आप जरा सा नजर फेरेंगे तो फिर से एक नया कोना दिखाई देगा. उस तरफ रोशनी दिखेगी. वहां चल पड़ेंगे कुछ नया पाने के लिए. एक नया अंतरिक्षयाक्षी बनने के लिए. मन का अंतरिक्षयात्री...

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