हम इरादों की कितनी तस्दीक करें. कितनी शिकायत करें, कितनी कल्पना करें. सब बेवजह हो जाता है तब जब कोई समझना नहीं चाहे. घृणा मन को सड़ा देने वाला ऐसा अवगुण है जो मन को कंगाल कर देता है. इसी तरह ईर्ष्या ऐसा अम्ल है जो सब झुलसा सकता है. सारे रिश्तों को. ऊपर से अहंकार की गार्निशिंग इसपर ऐसा बोझिल जीवन तैयार करती है जो जीने लायक नहीं बचता. यहां बेशकीमती संबंध भी पानी मांग जाते हैं पर उन्हें पानी देने वाला नहीं मिलता.
इतना बेबस कर देती है ये मन को कि फिर आप बिल्कुल अकेला महसूस करते हैं. सभा के भीतर भी रहते हुए. भरोसे की कड़ियां सब ख्याली बातें लगती हैं. इनमें रस नहीं बचता. बिल्कुल भी स्वाद नहीं. पानी की तरह उदासीन भी नहीं. जो केवल बस शीतलता ही दे सकें. वो बस नाम के विपरीत हो जाता है. बिना ठंडक पहुंचाए. ना राहत.
उदासीनता ही दरअसल सर्वश्रेष्ठ चुनाव हो जाता है, इन कठिन परिस्थितियों में. यही तो निर्णय है, जो बस अंत में हम कर पाते हैं. या कर सकते हैं. बहुत कुछ अनुचित से बचते हुए और उसे दूर करते हुए. उदासीनता निर्लिप्त ना होना है. अलग होना है गैरजरूरी गलतियों से. जो जाने अनजाने नहीं बल्कि गहरी मंशा से की जाने लगें. जो साज़िशों की तरह प्रतीत हों. अहंकार जब फलने फूलने लगता है, तुलनाएं हावी होती हैं, तो बस ये उनसे मन को बचाने के लिए जरूरी हो जाता है. ये दवाई बन जाता है. ये राहत दे सकता है. ये मरहम का काम कर सकता है दर्द में.
हालांकि, इसका चयन करने से लेकर इसे परिणाम तक पहुंचाने में एक बेहद जटिल प्रक्रिया से होकर गुजरना होता है. इसमें हर तरफ एक मुश्किल रहती है. कोई उपलब्ध महसूस नहीं होता. कहीं पर भी कुछ गैर-हासिल सा लगने लगता है. किसी गतिविधि का कोई परिणाम नहीं महसूस होता. ना ही उन परिणामों से कोई उत्साह की अनुभूति. पर हमें इसे करना होगा. ये बेहद अहिंसक होगा. अहिंसा मनोवाचित गुण वाली ना कि एक रणनीतिकार की बनाई हुई प्रक्रिया. मनसा वाचा कर्मणा अहिंसक होना ही सर्वथा उचित है. हर बार कांट छांट करते रहोगे तो खुद भी कट जाओगे.
याद रखो तार काट सकते हो पर तरंगे नहीं. उन तरंगों का चुंबकीय प्रभाव आपको जोड़े रख सकता है. आपका यकीन उन चुंबकीय किरणों पर होना चाहिए. जो आपके अंदर हमेशा परिलक्षित होती रहें. इनका असर कोई खत्म नहीं कर सकता.
गहन चिंतन करेंगे तो पाएंगे कि वो एक दायरे की वस्तु हैं. चुम्बकत्व की तरंगे अपनी हर दिशा में फैलती हैं. जो उनसे वास्ता रखने वाली तरंगे या उनके अनुकूल होती हैं, वो उनके प्रभाव से आकर्षित होती हैं और जो विपरीत होती हैं उनसे वे दूर भागती हैं. उन्हें कितना भी नजदीक लाने का प्रयास किया जाए, वो उनकी आंतरिक बनावट के चलते कभी करीब आ ही नहीं सकतीं. इसमें कितनी भी ऊर्जा की खपत की जाए. वो भौतिकी के सारे नियमों से बंधी हैं. उनका वह दोष नहीं, वे वैसे ही हैं. वो विपरीत हैं तो विपरीत ही रहेंगे.
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