प्रिय कौन हो? ये जबरन बनते हैं या अपने आप होता है ये? सिफारिशों पर मिलती उपलब्धियां क्या राहत पहुंचा सकती हैं. चालाकियां क्या सुकून दे सकती हैं? मन को गतिरोधों से मुक्त रखना क्या अब सही प्रक्रिया नहीं है? जटिल बनते जाना और सरलता का ढोंग करना उचित है? क्या सब कुछ परिस्थितिजनक है. क्या सब मौकापरस्ती है?
जीवन मौके दे रहा हो और उनसे विमुख हो जाना किसी पल आपका पूरा रास्ता बदल देता है. चाल कितनी तेज हो ये किसी को कहां समझ आता है. दूर की चमकदार वस्तुएं हमेशा आकर्षित तो करेंगी पर जरूरी नहीं कि हर सुदूर दिख रही चीज को हासिल किया जाए. हमें ये देखना है कि हमें क्या सुकून दे रहा है. किन हालात में हमें उन्हें पाने की कोशिश करनी चाहिए.
किसी भूमिका की लालसा उतनी ही करनी चाहिए जब आप उसके लिए पूरी तरह तैयार हों. हर भूमिका से ऐसी अपेक्षाएं और जिम्मेदारियां जुड़ी हुई हैं, जो बहुत ज्यादा अलग तरह की डिमांड करती हैं. आपको उनके लिए बिछ जाना पड़ता है. आप वहां अकेले होते हैं. कहने के लिए ऊपर होते हैं. पर वहां खतरा गिरने का है. गिरना आसान है वहां पर. गिरकर उठने वाली प्रेरणादायी बातें फिर बाद की हैं. पर वहां ये खतरा बरकरार रहता है. हम ऊपर उठ रहे हैं या स्थिर हैं. ये विचार हमें हिला सकता है. आप ठूंठ बन जाते हैं. आप अवसरवादी नहीं हैं तो आप अस्थिर हो सकते हैं.
ये अस्थिरता बड़ी आसानी से दस्तक देती है. कहीं से भी आएगी और नकारात्मकता छोड़ती जाएगी. इसके निशान इतने गहरे होते हैं, कि आपका दिल कभी संतुलित नहीं होने देती. जिसे जज़्बा कहते हैं वैसा भी कुछ ढीला पड़ने लगता है. यहां भूमिका बदलने की ऐसी तीव्र जरूरत महसूस होगी कि लगेगा अब तक की सारी भूमिकाएं अधूरी रहीं. उनका औचित्य परिणामहीन लगेगा. कर्म सारे व्यर्थ लगेंगे. हमें दिखाई नहीं देगा कि कहीं फलीभूत हो भी रहे हैं या नहीं. हम जोखिम के बीच रहेंगे और वो हमेशा गाढ़े होते जाएंगे और हम हल्के पड़ने लगेंगे. वो कोई फैसला नहीं लेने देंगे. वो बीच मझधार में फंसा देंगे और लगेगा कि हम कहीं जा ही नहीं रहे. अधूरे से पड़े रहेंगे. जालसाजी लगेगी हर तरफ. पानी रुका हुआ. गले में फंस जाएंगी आवाजें. जीभ रुक जाएगी. ना कुछ कहा जाएगा ना निगला जाएगा. ये सब गले में रुंध जाएगा.
इतनी बेचैन करने वाली अस्थिरता कि फिर कुछ समेट नहीं पाओगे. बर्ताव बिगड़ते जाएंगे. इसपर लगाम नहीं लगा पाओगे. कुछ ताने बाने ऐसे ही हैं कि इनका कुरूप स्वरूप दिख जाए तो घिन से भर जाओगे. घूम फिरकर सब उतार चढ़ाव की तरह होगा. ये दौर बिगड़ता रहेगा लेकिन बीतेगा तो ये भी. ऐसे में बहते रहना ही सर्वथा उचित होगा. कम सुनी हुई बातें या कम कही गई बातें दमित नहीं होतीं. उनका असर होता है कहीं ना कहीं. वो मन को दलित कर देती हैं. गिरा देती हैं. जब गिरा हुआ सा लगे मनोबल तो आसपास के वातावरण पर गौर करना जरूरी होगा. यकीन रखो साधनों से सुख का कोई संबंध नहीं है. एक सीमा तक वो प्राप्त होने के बाद अत्यधिक होने में कष्ट ही बढ़ता रहता है
सब कुछ बरकरार नहीं रह सकता. कितना भी किसी भी आकार प्रकार की बनावट हो. जीवन चलगामी है. इसकी अवस्था हर वक्त बदलती है. हमें अधिकार मिलते हैं, फिर बदलते हैं. जुनून में उन्हें स्थायी समझने की गलती हम ना करें. जो पिघल रहा है वो पिघलेगा ही. उसे नहीं रोका जा सकता. ये संक्रमण की तरह है, जिसने छुआ वो झुलस जाएगा. साधनों के होते हुए भी उनका उपभोग संभव नहीं होगा. संघर्षरत जीवन में गिरते पड़ते कहीं ना कहीं तो पहुंचना होगा. कहीं पर रुकावट होगी, वहां से सफर बदलना भी पड़ सकता है. इसलिए अत्यधिक स्थायित्व की अपेक्षा में पड़े रहना हल नहीं है.
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