ऊंचाई का सफर...

आजाद ख़्याली इतनी दूर ले जाती है, कि वहां शिखर तक बिल्कुल अंतिम बिंदु तक, जो कभी कभी काल्पनिक ही होती है. जहां पैर ही ना टिक सके. किसी नोक पर कैसे खड़े हो पाओगे. वो बिंदु किसी कांटे सरीखा ही तो होगा. उसपर दोनों पैर टिकाना भी संभव नहीं होगा. हालांकि वहां पर सिर्फ एक पैर से ही खड़ा हो सकने की गुंजाइश होगी. पर कोई राहत नहीं होगी. एक पैर थके तो उसे नीचे रखकर दूसरे पर आने की आड़ तक नहीं. बस वो खूब ऊंचाई पर होगी. एक वीरान जहां से सब नीचा लगेगा. इस हालत में आप सिर्फ अपने मन के फैसले से ही रुके रह सकते हैं. पर ये अजीब होता है. इससे गुजरना सराबोर कर देता है तमाम आभासी कल्पनाओं में. भ्रमों में. तिल के ताड़ बन चुके बेबुनियाद अनुभवों में. कुछ कही सुनी अप्रिय बातों में. शिखर से पीछे की धूर्त चालाकियों से छिल चुकी पीठ से टपकते कष्टों से. पीछे छूट रहे या बिल्कुल छूट चुके साथियों, राहगीरों से. ये ऊंचाई का सफर या वर्टिकल जर्नी एक दम से उठाकर दूर कर देती है. यहां भावनाएं गिर सकती हैं. हवा में ही किसी निर्वात में फिसल सकती हैं. या कहीं अटक सकती हैं. उन्हें दरकिनार कर देने का भी संयम नहीं बचता. उथल पुथल से भरे जीवन के परिणामों में आंदोलित होती चेतना का भी असर अलग से दिखता है. उसे पहचानते हुए भी समय नहीं होता कि उससे रुककर बात की जा सके. आपके सामने खड़ी आपकी शालीन चेतना मौन को अपना लेती है फिर तो...


आप भ्रमित से होते हैं. कोई ये शत प्रतिशत दावा नहीं कर सकता कि जड़ता या नींव पूरी पक्की ही रहेगी. नींव का भी तो कहीं आधार होगा. वो तो हिल सकता है. सब कुछ कहीं ना कहीं किसी पर टिका है. कहीं का भार कहीं ना कहीं. आप कहां टिके हैं, या कहां-कहां टिके हैं. अपने जीवन के हर पहलू में देखिए कि आप टिके हुए हैं. यकीन मानिए, भले ही आपका अहंकार आपको ये ना मानने के लिए जिद करे. आपके टिकते ही उस जगह के घिरने से आपत्तियां भी आपको ही झेलनी हैं. ये अदृश्य सहारे होंगे ही आप इनके बिना अपनी जगह नहीं भर सकते इस दुनिया में. आपकी निर्भरता रहेगी इनपर. आप चाहकर भी उनसे अलग नहीं हो सकते. ये सब उस ऊंचाई के सफर से पहले के बने हुए ढांचे के हिस्से ही होते हैं. पर उनकी तात्कालिक जरूरत बाद में रूप बदलती रहती है. आप समझा नहीं सकेंगे, ये जटिल होगा. इस प्रश्न का उत्तर भी नहीं मिलेगा.

अभीष्ट धारणाओं के साथ मिले लोगों से प्रियता बन जाती है. ये आसानी से होता है. पर उसमें कोई ट्रांजैक्शन नहीं होता. उनमें एक दूसरे के पास रख देने भर का मौका होता है. कि मेरी बात तुमने और तुम्हारी हमने रख ली. इनकी घनिष्टता तो आसान होगी. तो जरूरी तो ये है कि आप विपरीत या कम समान धारणाओं के लोगों में प्रियता बना सकें. इनमें घनिष्टता ला सकें. लेकिन अब इसमें दोनों की तरफ से पहल होने पर ही ये संभव होगा. एक भी अगर तैयार ना हो तो बात टूट सकती है. उनमें एक भी छल करेगा या अहंकार में डूबेगा तो संशय नहीं कि संबंध का अंत निश्चित है. इन दोनों की लंबी यात्रा में अगर निर्लज्जता आ जाए तो क्या कहने... फिर तो बखेड़ा खड़ा होना तय है. तो रास्ता क्या है?

रास्ता यही है कि नए रास्ते बनाए जाएं. अभीष्ट ना भी हो तो चलेगा. एक ही रास्ते चला जाए ये जरूरी नहीं. गति और वेग दोनों में फर्क होता है. इनमें बस दिशा का अंतर है. एक में मूवमेंट है पर दिशा निर्धारित नहीं. दूसरे में दिशा भी तय है. तो तय कर लो दिशा. बस ये दिशा केवल ऊंचाई की दिशा नहीं होनी चाहिए. धरातल पर भी थोड़ा बहुत मूवमेंट जरूरी है. धरती पर दाएं बाएं चलिए. आगे पीछे चलिए. फिर थोड़ा ऊपर जाइए. केवल एक बिंदु से वर्टिकल जर्नी पर जाएंगे तो शिखर पर पहुंचकर अगर फिसले तो वहीं गिरेंगे. वहां गिरे तो जो टिकने के साधन थे वही चटक जाएंगे. क्योंकि आपकी ऊर्जा दोगुनी हो चुकी होगी. पर वो वहीं जड़ होंगे.

जड़ता के साथ वर्टिकल जर्नी बेतुकी और असंभव बात है. आप गतिशीलता के साथ जड़ता को भी पकड़ेंगे तो टूट जाएंगे. ऊर्जा बढ़नी चाहिए ना कि जड़ता. अगर थोड़ी बहुत आ भी गई है तो यहीं छोड़ दो. अपने वेग से निकल पड़ो... बस

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